पत्ता चुण्डावत का बलिदान - Sacrifice of Patta Chundawat, इसमें चित्तौड़ के तीसरे शाके में केलवा के रावत पत्ता चुण्डावत के बलिदान की जानकारी दी गई है।
महाराणा लाखा के सबसे बड़े पुत्र चुंडा ने अपने सौतेले छोटे भाई मोकल के लिए मेवाड़ की गद्दी को त्यागकर मेवाड़ के भीष्म पितामह का दर्जा पाया।
चुंडा के पोते (पौत्र) रावत सीहा के पुत्र यानी चुंडा के पड़पोते (प्रपौत्र) जग्गा चुंडावत केलवा के रावत बने। इन्होंने राणा उदय सिंह को चित्तौड़ ले जाकर मेवाड़ की गद्दी दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
इसके बाद 1555 ईस्वी में जैताणा और छप्पन के युद्ध में महाराणा प्रताप की रक्षा करते हुए वीरगति पाई। बांसवाड़ा के आसपुर में सोम नदी के किनारे इनकी छतरी बनी हुई है। जग्गा चुंडावत के वंशज जग्गावत कहलाए जाने लगे।
जग्गा चुंडावत के बाद इनके पुत्र पत्ता चुंडावत केलवा के रावत बने। पत्ता चुंडावत का असली नाम फतेह सिंह था जो बाद में फत्ता होकर अंत में पत्ता बन गया।
पत्ता चुंडावत 1568 ईस्वी में चित्तौड़ के तीसरे शाके में जयमल राठौड़ के साथ किले के सेनानायक थे। इस शाके का जौहर इनकी पत्नी फूलकँवर के नेतृत्व में संभवतः किले में मौजूद इनकी हवेली में हुआ था।
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जब जयमल राठौड़, कल्ला राठौड़, रावत साईंदास चुंडावत, ईसरदास जैसे योद्धा युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो गए तब युद्ध की कमान केलवा के रावत पत्ता चुण्डावत ने संभाली।
इन्होंने लड़ते-लड़ते मुगल सैनिकों की लाशों का ढेर लगा दिया और इसके बाद मुगल हाथियों को भी मारना शुरू कर दिया।
जब मुगलों के कई हाथी मारे गए तब अंत में अकबर ने एक मतवाले हाथी को रावत पत्ता चुण्डावत की तरफ छोड़ दिया। इस मतवाले हाथी ने रामपोल दरवाजे के गोविंद श्याम मंदिर के पास पत्ता को अपनी सूंड से उठाकर जमीन पर पटक दिया और फिर सूंड से उठाकर अकबर के पास ले गया।
अपनी मृत्यु के अंतिम क्षणों में पत्ता चुण्डावत वहाँ खड़े अकबर से कुछ कहना चाहते थे लेकिन कुछ बोलने से पहले ही उनकी मृत्यु हो गई। इस लड़ाई में गोविंदश्याम मंदिर को तोड़ दिया गया जिसकी जगह अब सीताराम मंदिर (श्री राम जानकी मंदिर) है।
जयमल और पत्ता की बहादुरी से अकबर इतना प्रभावित हुआ कि उसने आगरा के किले में दरवाजे के दोनों तरफ इनकी हाथियों पर बैठे हुए की मूर्तियाँ लगवाई। इन मूर्तियों को बाद में औरंगजेब ने तुड़वा दिया।
जयमल और पत्ता की मूर्तियाँ बीकानेर के जूनागढ़ किले के सूरजपोल द्वार पर आज भी लगी हुई हैं। पत्ता के वीरतापूर्ण बलिदान पर इनके पुत्र करण सिंह को आमेट की जागीर मिली और ये आमेट के पहले रावत बने।
लेखक (Writer)
रमेश शर्मा {एम फार्म, एमएससी (कंप्यूटर साइंस), पीजीडीसीए, एमए (इतिहास), सीएचएमएस}
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